Friday, December 20, 2019

दोस्त




दोस्त!! एक ऐसा शब्द, जिसका हमारी जिंदगी में बहुत ही ख़ास महत्व है | दोस्त हमारी जिंदगी का अभिन्न अंग है | दोस्त वह होता है जो सुख और दुःख दोनों परिस्थिति में साथ निभाता है, जो हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, हमारी मुस्कान की वजह होता है हमारा दोस्त | दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है जो जल्दी से नहीं टूटता है | सच्चे दोस्त तो अपने दोस्तों के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर देते है | दोस्ती की ऐसी कईं मिसाले हम पूर्व में देख तथा सुन चुके हैं | सच में, बिना दोस्तों के भी जिंदगी कोई जिंदगी है भला !! दोस्त न हो तो ज़िन्दगी बड़ी बेरंग सी हो जाती है | हम दोस्तों के साथ हँसते है , उनके साथ ही हम अपने दिल की बातों को शेयर करते हैं | अच्छे दोस्त आपको हमेशा सही सलाह ही देते हैं | हालांकि अच्छे और सच्चे दोस्त भी किस्मत से ही मिलते हैं |





Monday, January 14, 2019

बचपन के पल (पार्ट 2)

बचपन की यादें जब कभी याद आती हैं आँखें नम कर जाती हैं| वो दिन ऐसे होते हैं जो हर कोई चाहता हैं की लौट के आजायें | दोस्तों वो दिन लौट कर वापिस तो नहीं आ सकते बचपन पल बड़े ही अनमोल होते हैं आज जब हम किसी छोटे बच्चे को देखते हैं। तो उसमे हमारा बचपन नज़र आता है।  बचपन में न कुछ पाने का सपना होता  न ही कुछ खोने का डर होता है 
वो गाँव की पतली-पतली गलियों में दौड़ कर चलना, घर में भाई बहन के साथ खेलना कहीं उनसे रूठना, कहीं उन्हें मनना, कभी उनसे रूठकर कट्टी कर लेना, कही वो हमसे कट्टी कर लेते, दूसरे दिन फिर उसी तरह साथ में खेलना,कहीं स्कूल में दोस्तों कि शिकायत करना कहीं दोस्तों से झगड़ा करना घर आकर मम्मी को सारी बात बताना, कितना अनमोल होता है कितना मीठा पल होता है ऐसे पलों का हम बयां  भी नहीं कर सकते। 
कहीं कागज़ के पन्नो से जहाज़ बनना और उसे हवा में जोर से उड़ना और ये देखना की किसकी जहाज़ कितने देर हवा में उड़ रही थी, बरसात में समय में पानी बरसने का इंतजार करते और बरसात रुकने के बाद दौड़ कर खेत से मिट्ठी लाकर खिलौने बनाते, फिर 2-3 दिन सूखने के बाद एक पतली सी रस्सी बाँधकर उसे चलते, दूसरे के खिलौनों को ईर्ष्या की नजर से देखते, कही बातों ही बातों में बहन से झगड़ा कर लेते, कट्टी करते कुछ समय बाद फिर साथ खेलने लगते। 
गर्मी के समय में आम के बगीचे में पेड़ के नीचे गुड्डे - गुड़िया बनाकर खेलते फिर उनकी शादी करना, जरा सी हवा चलने पर दौड़ कर आम बीनते, और अगर किसी पेड़ के एक पका हुआ आम दिख जाये तो पत्थर या मिट्ठी के ढेले से तब तक मारते जब तक वो गिर न जाये। फिर साथ मिलकर खाते फिर किसी बात पर झगड़ा कर लेना फिर कट्टी होना फिर दूसरे दिन बोलने लगना, मानो यहीं ज़िंदगी है। 
साथ में किताब,कॉपी,टिफिन लेकर स्कूल जाना वहां दोस्तों के साथ मस्ती करना दूसरे दोस्त का लंच खाना , छुट्टी होने पर साथ में अपने-अपने  जाना घर आकर हाथ पैर धोकर खाना खाना , कहीं होमवर्क करने का डर, कहीं दूसरे दिन टीचर द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नो को याद करने का डर, न बनने पर मार खाने का डर। तो कहीं हफ्ते में संडे आने का इंतजार 
 आज हमें ये बातें याद करके चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है। 
मम्मी - पापा के साथ मेले में जाना और वहां जाकर लाई, जलेबी , गुब्बारे और खिलौना खरीदने कि ज़िद करना। और मिल जाने पर मनो सारी खुशियाँ आ मिल गयीं  है , 
झूले में डर - डर कर बैठना फिर झूले के ऊपर जाने पर जोर-जोर से चिल्लाना।
आज इस उम्र में पहुंचकर ऐसा लगता हैं कि , आज वही बचपन, वही खुशियाँ  फिर दुबारा लौटकर आ जाये, लेकिन यह सच है कि वो बचपन वो पल कभी लौटकर नहीं आयेगा। वो पल आज भी हमारी आँखों के सामने घूमने लगता हैं, जब हम किसी छोटे बच्चे को खेलते देखते हैं तो हमें अपना बचपन नजर  आता है।  यह पल कितना अनमोल है उसका बयां नहीं किया जा सकता !!!


बचपन भी कमाल का था
खेलते खेलते चाहें छत पर सोयें
या ज़मीन पर
आँख बिस्तर पर ही खुलती थी !!

                                           कितने खुबसूरत हुआ करते थे बचपन के वो दिन
                                           सिर्फ दो उंगलिया जुड़ने से दोस्ती फिर से शुरु हो जाया करती थी

झूठ बोलते थे फिर भी कितने सच्चे थे हम
ये उन दिनों की बात है जब बच्चे थे हम...

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Monday, December 10, 2018

साहब मारेंगें।

यह बात आज सुबह की हैं मैं चाय पीने के लिए चच्चा की दुकान में बैठा था l  मैं चाय की चुस्कियां ले रहा था तभी मेरे पास एक बच्चा आया l और मुझे देखकर वो बोला "भैया" और अपना हाँथ फैलाया मैं बोला " छोटु " मेरे पास तो छुट्टे नहीं हैं कुछ खा लो वो बोला नहीं मैं कुछ नहीं खाऊंगा अगर मैं खाऊंगा तो मेरे साहब मुझे मारेंगें
मैं बोला कौन साहब ? वो बोला हमारे साहब है वो हमें लोगों से पैसा मांगकर लाने  को कहते हैं और पैसा न जमा करने पर वो हमें मारते  हैं हम  40 लोग हैं और सभी लोग भीख मांगते हैं। हम  सब लोग 200 से 300 रूपए लोगों से माँग लेते हैं और सब लोग अपना - अपना पैसा साहब के पास जमा करते हैं और फिर हम सभी लोग 
एक कमरे में नीचे ज़मीन पर चटाई बिछाकर और सोते हैं और दरी को ओढ़ते हैं।  और खाने के लिए 2-3 रोटी और दाल देते हैं , हम लोगों का पेट नहीं भरता और भूख लगने पर हम लोग व्हाइटनर या सेलूशन रुमाल में रखकर जोर से सूँघते हैं जिससे हमें नसा आ जाता हैं और फिर भूख नहीं लगती।  साहब के कुछ आदमी हमारे आस-पास 
घूमते रहते हैं जिससे हम लोगों से कुछ बोल नहीं पाते। और पैसा न जमा करने पर साहब मारते  हैं इसलिए हम लोग पैसा ही मांगते हैं इतना बोलकर वो जाने लगा तो मैं उसे बैठाकर खाना खिलाया और मेरे पास समय का आभाव होने के कारण मैं उससे कल मिलने को बोला अब कल उससे मिलने के बाद ही मैं उसके बारें में जानकारी दे 
पाउँगा कि वो कहाँ का रहने वाला हैं और वो ये यहाँ इन लोगों के पास कैसे पहुंचा और उसे कितनी दुःखो  का सामना करना पड़ रहा हैं .
लेकिन मैं मानता  हूँ की ऐसे लोग जो छोटे बच्चो का शोषण कर रहे हैं, इन लोगों को बढ़ावा भी हमी लोगों से ही मिलता हैं. ऐसे लोग हमारे आस-पास रहते हैं और हम सब जानकर भी अनजान बने रहतें हैं।  और हम सोचते हैं की हम अकेले इनका कुछ नहीं कर सकते।  लेकिन हमारी सोच हमारी मानसिकता की ख़राब हैं सच तो ये है कि 
हम सोचते हैं कि हमारा इसमें क्या फायदा होगा ? आज हमारी इसी  वजह से कितने लोगों  मज़बूर किया जाता हैं, उनका शोषण होता  है, उनके मानव अधिकार का हनन होता हैं और हम सब चुप चाप खड़े रहकर ये देखते रहतें हैं लेकिन हमारे और आपके प्रयास से ये बुराई ख़त्म हो सकती है. ज़रुरत है सिर्फ एकता की और एकता भी हमी और आपके प्रयास से संभव है. हम और आप सोचते हैं की हम अकेले क्या कर पाएंगे ? लेकिन ये गलत हैं एक से ही हज़ार होते है बस ज़रुरत हैं आगे बढ़ने की 
इस देश में हर दिन, हर घंटे, हर मिनट, न जाने कितने बच्चो का, लड़कियों का, शोषण किया जाता हैं और हम चुप रहते हैं की हम अकेले क्या कर सकते है ?
जिन बच्चो के हाँथ में देश का भविष्य हैं आज उन्ही बच्चो के हाथों पर मज़बूरियां।  आखिर क्यों ? 



Wednesday, January 17, 2018

देश कि बेरोज़गारी

बेरोजगारी देश के सम्मुख एक प्रमुख समस्या है जो प्रगति के मार्ग को तेजी से अवरुद्‌ध करती है । यहाँ पर बेरोजगार युवक-युवतियों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है । स्वतंत्रता के पचास वर्षों बाद भी सभी को रोजगार देने के अपने लक्ष्य से हम मीलों दूर हैं ।बेरोजगारी की बढ़ती समस्या निरंतर हमारी प्रगति, शांति और स्थिरता के लिए चुनौती बन रही है । हमारे देश में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं । अशिक्षित बेरोजगार के साथ शिक्षित बेरोजगारों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है । देश के 90% किसान अपूर्ण या अर्द्ध बेरोजगार हैं जिनके लिए वर्ष भर कार्य नहीं होता है । वे केवल फसलों के समय ही व्यस्त रहते हैं । शेष समय में उनके करने के लिए खास कार्य नहीं होता है । यदि हम बेरोजगारी के कारणों का अवलोकन करें तो हम पाएँगे कि इसका सबसे बड़ा कारण देश की निरंतर बढ़ती जनसंख्या है । हमारे संसाधनों की तुलना में जनसंख्या वृद्‌धि की गति कहीं अधिक है जिसके फलस्वरूप देश का संतुलन बिगड़ता जा रहा है ।इसका दूसरा प्रमुख कारण हमारी शिक्षा-व्यवस्था है । वर्षो से हमारी शिक्षा पद्‌धति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है । हमारी वर्तमान शिक्षा पद्‌धति का आधार प्रायोगिक नहीं है । यही कारण है कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् भी हमें नौकरी नहीं मिल पाती है । बेरोजगारी का तीसरा प्रमुख कारण हमारे लघु उद्‌योगों का नष्ट होना अथवा उनकी महत्ता का कम होना है । इसके फलस्वरूप देश के लाखों लोग अपने पैतृक व्यवसाय से विमुख होकर रोजगार की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं । आज के समय में युवा पीढ़ी की एक मुख्य समस्या है " बेरोज़गारी " की, आज बेरोजगारी के कारण देश का हर परिवार, हर घर , हर व्यक्ति अपने सपने को मारकर अपने बच्चो के लिए एक नया सपना देखते हैं की मेरा बेटा या बेटी बड़े होकर "ये बनेगे , वो बनेगे , कोई सरकारी अफसर बनेगा " लेकिन किसी तरह से हर समस्या और परेशानी को सहते हुए जब अपने बेटा या बेटी को पढ़ाते - लिखाते है, और इस बेरोजगारी के कारण उन्हें नौकरी नहीं मिलती तो उनके सारे सपने किसी काँच की तरह टूट कर बिखर जाते हैं I फिर किसी तरह अपने आप को सँभालते हुए वो लड़का - या लड़की किसी प्राइवेट कंपनी में जॉब पाने के चक्कर में घूमते फिरते हैं, फिर कही जाकर किसी प्राइवेट कंपनी में किसी ठेकेदार के पास काम कर्त हैं जंहा उन्हें 8 से 12 घंटे के मात्रा 250 से 400 रुपये में काम करते हैं  और उन्हें इस प्राइवेट कंपनी परमामेंट  काम करने के लिए एक्सपीरियंस के साथ - साथ कुछ दक्षिणा भी देना पड़ता है और उस कंपनी के अंदर किसी से जान पहचान होना चाहिए, लेकिन अगर दक्षिणा देने के लिए पैसे होते तो वो कोई दुकान खोलता या कोई छोटा -  मोटा बिजनेस करता वो यहाँ  क्यों आता ?  और आज के समय में तो सरकारी नौकरी किसी भगवान के साक्षात् दर्शन से काम नहीं हैं अगर पदों की संख्या 10 हजार है तो आवेदन करने वालो की संख्या करीब डेढ़ से दो लाख होती हैं पर नौकरी तो 10 हजार को ही मिलेगी ऊपर से इतना कॉम्प्टीशन की अच्छे अच्छे लोग हांथ खड़े कर लेते है क्यों की उनके पास इतनी बड़ी दक्षिणा देने को पैसे नहीं होते, अगर कोई किसी व्यक्ति का आदमी किसी ऊँचे और अच्छे पोस्ट पर सरकारी नौकरी करता हो और पैसा हो तो उनके लिए ही सरकारी हैं बाकि गरीब आदमी तो सरकारी नौकरी को भूल जाये तो अच्छा है उनको तो एग्जाम के फॉर्म के पैसे देने के लिए भी 1 हफ्ता पहले से व्यवस्था करनी पड़ती है और वो पैसा भी उनके हाथ  से चला जाता हैं 
मुझे ये समझ नहीं आता कि  अगर पदों की संख्या 10 हजार है और आवेदन करने वालो कि संख्या 2 लाख है और परीक्षा फीस 400 हैं तो इसका मतलब  200000 लोगो की फीस  200000 x 400 = 80000000 करीब 8 करोड़ रुपये  और पदों संख्या 10000 तो मैं मान लिया की उनके पैसे काम आ गए 10000 x 400 = 4000000  करीब 40 लाख रूपये  बाकि के 80000000 - 4000000 = 76000000 करीब 7 करोड़ 60 लाख रूपये कहा गए ? ये सब पैसा तो उन गरीबो का है जो आधी रोटी खाकर अपने बच्चो के भविष्य लिए पैसा इकठ्ठा करते है अमीर लोगो को तो नौकरी मिल गयी बाकि बचे गरीब, गरीब ही रह गए जितना पैसा गरीबो का इकठ्ठा हुआ है उतने में तो काफी लोगो को जिन्हे नौकरी मिल गयी है उनके पेमेंट के लिए काफी है  इसलिए गरीब हमेशा गरीब ही रह जाता हैं और अमीर और अमीर होता चला जाता हैं इस पर बहुत से प्रतिभाशाली लोग जिनके पास पैसा नहीं  वो लोग पीछे ही रह जाते है मेरी शिकायत इन अमीर लोगो से नहीं मेरी शिकायत तो इस सिस्टम से हैं जो प्रतिभाशाली लोगों को पीछे की ओर  ढ़केल रहा हैं और उन्हें अपना प्रतिभा और विचार व्यक्त करने का कोई जरिया नहीं मिलता आज हम 21वीं सदी में है और मुझे लगता हैं की इस 21वीं सदी के हिसाब से बहुत पीछे हैं कभी आपने ये सोचा की जापान, अमेरिका,रूस , चाइना हमसे आगे क्यों हैं हमारे पीछे होने का कारण हैं, हमारे पास प्रौद्योगिकी की कमी होना, जिनके पास प्रतिभा है कुछ कर दिखाने का उन्हें कोई मंच नहीं मिलता और जिन्हे मंच मिलता हैं उनके पास प्रतिभा की कमी होती हैं इसलिए आज के सदी में भी हम बहुत पीछे हैं अब हमें जरूरत हैं ऐसे प्रणाली (सिस्टम ) को बदलने का जिससे प्रतिभाशाली लोगों को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिल सके 



By Niranjan Patel

Tuesday, January 9, 2018

बचपन के पल

बचपन, एक ऐसा मधुर शब्द जिसे सुनते ही लगता है मानो शहद की मीठी बूंद जुबान पर रख ली हो। जिसकी कोमल कच्ची यादें जब दिल में उमड़ती है तो मुस्कान का लाल छींटा होंठों पर सज उठता है। जब भी इन महकते हरियाले पन्नों को फुरसत में बैठकर खोला और इन पर जमी धूल की परतों पर यादों की फुहारें डाली, भीनी-भीनी सुगंध की बयार ने उठकर मन को भावुक बना दिया। बचपन वही तो होता है जो कंचे और अंटियों को जेबों में भरकर सो जाए, बचपन यानी जो पतंगों को बस्ते में छुपाकर लाए, बचपन मतलब जो मिट‍्टी को सानकर लड्डू बनाए, बचपन बोले तो वो जो बड़ों की हर चीज को छुपकर आजमाएं। बचपन यानी पेड़ पर चढ़ने के बाद जो उतरने के लिए चिल्लाए, बचपन कहें तो वो जो अंदर से दरवाजा बंद कर बड़ों की परेशानी बन जाए, कुल मिलाकर बचपन यानी शरारत, शैतानी और मस्ती की खिलखिलाती पाठशाला। गुलेल, गिल्ली-डंडा, तितली पकड़ना, घरौंदे बनाना ये सब आज बीते बचपन की बात हो गई है। आज का बचपन इतना सुविधायुक्त और वैभवशाली है कि उन खेलों से कोसों दूर है जिन्हें खेलकर कपड़ों से गीली मिट्टी की खुशबू आती थी। आज का साफ-सुथरा अभिजात्य बचपन वीडियो गेम, कंप्यूटर, मोबाइल, ऑनलाइन गेम्स के बीच व्यतीत हो रहा है। कभी-कभी लगता है अभिभावक ये सब इन्हें नहीं देंगे तो जैसे ये बड़े ही नहीं होंगे। पालकों को लगता है इनके बिना बच्चों का मानसिक विकास अधूरा रह जाएगा। सच तो यह है कि पुराने और पारंपरिक खेलों से हमने और हमारे बड़ों ने जो सीखा-समझा है वह इन अत्याधुनिक खेलों के बस की बात ही नहीं है। धूल और माटी में सनकर ही हमने जाना कि आंगन में कितने और कैसे-कैसे पौधे हैं। छुईमुई कैसी होती है? तुलसी को आंगन की रानी क्यों कहा जाता है? घोंघें कैसे अपने ही घर को सिर पर उठाए चलते हैं। हथेली के ऊपर रेत और मिट्टी चढ़ाकर घरौंदे बनाते हुए अपना घर बनाने की सीख ले ली। जब नन्हे शंख और सीपी से उसे सजाकर आत्मीयता से थपथपाया तो खूबसूरत घर की परिभाषा भी जानी। गेहूं, धान, ज्वार और मूं ग के इधर-उधर बिखरे दाने भीगकर कैसे अंकुरित हो जाते हैं, यही प्रस्फुटित अंकुर पहले पौधे और बाद में पेड़ बन जाते हैं, यह सब हमने किताबों में बहुत बाद में पढ़ा हमारे भोले बाल-मन ने तो बगिया में घुमते हुए ही अनुभूत कर लिया था। हो सकता है उस वक्त का समझा वैज्ञानिक रूप से पूर्णत: सत्य और वास्तविक ना हो लेकिन मिट्टी में रच-बस कर प्रकृति से जो अनमोल रिश्ता और संवेगात्मक लगाव हमारे दिलों ने उस वक्त बनाया था वह आज तक कायम है। मिट्टी की वह मीठी और महकती सौंधी गंध भावनाओं में उतर कर ह्रदय को कैसे स्पर्श कर गई थी उसे आज भी शब्दों में पिरोकर व्यक्त करना मुश्किल है। तितली की सुंदर चित्रकारी को देखकर हमने ना जाने कितने कल्पना के घोड़े दौड़ाए, कौन बैठकर इतनी बारीकी से रंगों को सजाता है? उन्हें देखते हुए कब छोटे-छोटे कच्चे हाथों ने नन्हे ड्राइंग ब्रश उठा लिए पता ही नहीं चला। मां के आटा गूंथते ही चहचहाती गौरेयों का समूह खिड़की पर मंडराने लगता तो मां बताती, देखों इसे कहते हैं समय की पाबंदी। अक्सर सोचती हूँ कि यदि बचपन में ही सबकुछ सैद्धांतिक, तार्किक और वैज्ञानिक तरीके से सीख लिया होता तो आज किस भोली समझ और मासूम ज्ञानार्जन को याद करके मुस्कराती? बचपन आज भी भोला और भावुक ही होता है लेकिन हम उन पर ऐसे-ऐसे तनाव और दबाव का बोझ डाल रहे हैं कि वे कुम्हला रहे हैं। उनकी खनकती-खिलखिलाती किलकारियां बरकरार रहें इसके ईमानदार प्रयास हमें ही तो करने हैं। देश के ये गुलाबी नवांकुर कोमल बचपन की यादें सहेजें, इसलिए जरूरी है कि हम उन्हें कठोर और क्रूर नहीं बल्कि मयूरपंख-सा मुलायम मुस्कुराता लहलहाता बचपन दें। उनका नटखट रूप यूं ही खटपट करता रहे, मीठे तुतलाते बोलों से पट-पट करता रहे, बचपन के हक में यह दुआ आज हमें मांगनी ही होगी।